Wednesday, December 9, 2009

गणपति वंदना
गणपति अग्रदेव हैं जिन्होंने हर काल में अलग - अलग अवतार लिया है । उनकी शारीरिक संरचना के भी मिश्रित अर्थ हैं । शिव मानस पूजा में उन्हें प्रवण ऊँ कहा गया है । इस brahm ब्र्म्हा अक्षर में मस्तक भाग श्री गणेश का और नीचे का भाग उदर चंद्र बिन्दु लड्डू और मात्रा सूड़ के समान है । चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएं हैं । वे लंबोदर हैं, चराचर श्रृष्टि उनके उदर में विचरित करती है बड़े कान उनकी अधिक ग्राह्य शक्ति एवं छोटी पैनी तेज सूक्ष्म ऑंखे तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं । उनकी नाक महा बुध्दित्व का प्रतीक है ।
श्री गणेश जी के बारह नामों में प्रमुख है सुमुख एकदन्त, कपील, गजकर्णक, लंबोदर विकट, धूम्रकेतु गणाध्यक्ष, बालचंद्र, गजानन । श्री गणेश के पिता भगवान शिव माता - भगवती पार्वती, भाई श्री कार्तिकेय, बहन-माँ संतोषी, पुत्र दो - शुभ एवं लाभ, पत्नि दो - रिध्दि एवं सिध्दि, प्रिय भोग मोदक, प्रिय पुष्प लाल रंग के फूल, प्रिय वस्तु दूब,(द्रुव्रा घास), शमी-पत्र, अधिपति - जल तत्व,जलतत्व के प्रमुख अस्त्र पाश, अंकुश ध्यान रहे गणेश चतुर्थ के दिन का चंद्रमा देखना दूषित है एवं गणेश जी को तुलसी पत्र चढ़ाना भी वर्जित है ।

भगवान परशुराम जी
भारतीय संस्कृति के अमर गायक दार्शनिक भक्त, कवि तुलसी दास ने लिखा है -
१.' ईश्वर अंश जीव अविनासी l
चेतन अमल सहज सुख रासी ll'
२. 'सो माया बस भयउ गोसाईं l.
बंध्यो कीर मरकत की नाई ll '
इन छोटी सी पंक्तियों में जीव को इश्वर का अंश कहकर उसके अमरत्व और आनंद पूर्ण होने की घोषणा की है. इसके अतिरिक्त यह भी चेतावनी दे दी है कि कष्ट और बंधन माया की विकृति का परिणाम है. विकृत माया से जीव बचा रहे तो फिर जीवन में चेतनता,पवित्रता व सहज सुख का कोइ अभाव नहीं है.
भगवान् ने जीव ( अर्जुन) को यह भी आश्वासन दे दिया है कि मैं अधर्म के बढने पर मानवता को कष्ट देने वाले दुष्टों का विनाश करने एवं साधू-सज्जनों की रक्षा के लिए समय-समय पर आता रहूंगा.
परमपिता परमेश्वर ने अपनी प्रियतम संतान को हर सुख और हर प्रकार का आश्वासन देकर संसार में अवतरित किया है, फिर भी मनुष्य मोह और अहंकार के वशीभूत होकर विपति को निमंत्रण देता रहता है और परमेश्वर अपने आश्वासन के रक्ष के लिए इस धरा पर अवतार के रूप में अवतरित होता रहता है. इस सृष्टि में अब तक श्री हरि के असंख्य अवतार हो चुके हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे.
परशुराम का अवतारत्व
प्रारम्भ से अब तक नारायणी शक्ति से संपन्न कच्छप,मत्स्य ,वाराह,नृसिंह,वामन,परशुराम,राम,कृष्ण आदि नौ प्रमुख अवतार हो चुके है, जिनमे परशुराम का स्थान छठा है .
अवतार के सम्बन्ध में सर्व स्वीकृत तीन सिद्धांत हैं .
१. अवतार परम पिता परमात्मा का परम विशिष्ठ अंश अवं नारायणी शक्ति से परिपूर्ण होता है.
२. अवतार लोक कल्याण के लिए तथा लोक-बाधक शक्तियों के विनाश के लिए आते है.
३. अवतार धर्म (कर्त्तव्य ) की मर्यादा की स्थापना के लिए अवतरित होते है.
भारतीय चिंतन अवं दर्शन के विकास में महाभारत और पुराणोंका बहुत महत्व रहा है.अवतार की अवधारणा का मूल स्रोत भी महाभारत,गीता और पुराण आदि ही है. पुराणों ने ही परशुराम की परिगणना अवतारों में की है.
अवतार के सम्बन्ध में अनेकानेक ऋषिओं ने शास्त्रों में बहुत कुछ कहा और लिखा है परन्तु उसका विशद और व्यापक रूप प्रथम बार श्रीमदभगवद गीता की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट हुआ है :
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः l
अभ्युत्थानं धर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम ll
परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम l
धर्म्स्थाप्नार्त्हाय संभवामि युगे युगे .. ll
जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः l
त्वक्तावा देहं पुनर्जन्म नेति मामोती सोअर्जुन ll
(गीता ४.७-९)
परशुराम रामायण काल के मुनी थे । भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ । वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे । पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए । आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप जी से विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ । तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया । शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए । चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंत तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया ।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे । उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा । इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है :
-ॐ जामदग्न्याय्विद्महेमहावीराय्धीमहि,तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात ।
भगवान् परशुराम के प्रति की गई टिप्पणियाँ
बहुत पहले से ही भगवान् और उनके प्रमुख अवतारों के विषय में मेरे मन में एक आस्था यह थी कि अवतार दयालु , कृपालु , उदार ,पक्षपात रहित, दीं-दुखियों पर कृपा करने वाले, सब प्राणियों को प्यार-स्नेह करने वाले,राक्षसों को मारने वाले,सज्जनों पर अनुकम्पा करने वाले,बालक, स्त्री, वृध्द, आश्रयहीन, पर दया करने वाले सौम्य , अक्रोधी , आवेश रहित तथा राक्षसों को छोड़कर अन्य किसी को भी कष्ट न देने वाले होते है l जब मैंने यह पड़ा व् सुना कि अवतार भगवान् परशुराम ने पिता कि आज्ञा से माता का सर काट दिया था, पृथ्वी कि क्षत्रिय विहीन कर दिया था और राम लक्ष्मण से लड़ पड़े थे l तब यह सब बातें मुझे कल्पनातीत लगी थे तथ मेरे मन से भगवान् का शील,शक्ति और सौन्दर्य युक्त चित्र खंडित नहीं हो सका ; और बहुत से शोध कर्ताओं ने अपने शोध में महानायक अवतार परशुराम का चरित्र शील-शक्ति और सौन्दर्य से परिपूर्ण कोमल,परम्सुंदर परम उदार ,दयालु और दीनो पर अनुकम्पा करने वाला ही चित्रित किया है. वे लिखते हैं कि अवतार परशुराम कोमल हृदय ,करुना से युक्त, सौम्य विचारों वाले परम उदार,अक्रोधी, शिशुओं की भाँती सरल-सहज मुस्कान वाले धराम्प्रायण महात्मा वीर थे. माता का सर काटने वाले ,धर्मात्मा क्षत्रियों का विनाश करने वाले क्रोधी अथवा राम-लक्ष्मण जैसे उदार सूर्यवंशी क्शत्रिओन से व्यर्थ में झगडा करने वाले नहीं थे ।
माता शिरोच्छेदन कथा की असंगति
माता का सर काटने वाती घटना में महर्षि जमदग्नि द्वारा योगमाया से निर्मित रेणुका को प्रस्तुत किया गया है और यह सिद्ध किया गया है कि इस घटना का कारण माता रेणुका का कोई मानसिक व्यभिचार नहीं; वरन पिता जमदग्नि द्वारा पुत्र राम से मात्रि-मोह पर विजय पाने की परीक्षा लेना है.
यदि महाभारत और पुराणों में वर्णित मात्रि -शिरोच्छेदन वाली घटना को ज्यों-का त्यों स्वीकार कर लिया जाता है, तो इससे माता रेणुका क्वाभिचारिणी सिध्द होगी . महर्षि जमदग्नि विश्वश्हीं पति और परशुराम मात्रिहंता क्रूर -क्रोधी पुत्र कहलायेंगे.

वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे । उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया । अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर शस्त्रविद्या प्रदान करना शेष है ।
परशुरामजी का उल्लेख बहुत से ग्रंथों में किया गया है - रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, और कल्कि पुराण इत्यादि में । वे अहंकारी और धृष्ठ हैहय-क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं । वे धरती पर वदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है की भारत के अधिकांश भाग और ग्राम उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं । वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे । वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं किया करते थे । उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाए रखना था । वे चाहते थे की यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल औए समूचि प्रक्र्ति के लिए जीवंत रहे । उनका कहना था की राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना की अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना । वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे । उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है ।
यह भी ज्ञात है कि परशुरामजी नें अधिकांश विद्याएं अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीखीं थीं (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है) । वह पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे । यहाँ तक की कई खूंखार वनीय पशु भी उन्के स्पर्श मात्र से उनके मित्र बन जाते थे ।
उन्होंने सैन्यशिक्षा के ब्राह्मणों को ही दी । लेकिन इसके कुछ अपवाद भिइ हैं जैसे भीष्म और कर्ण ।
उनके जाने-माने शिष्य थे -
१. भीष्म
२. द्रोण, पाण्डवों और कौरवों के गुरु, अश्वत्थामा के पिता ।
३. कर्णः कर्ण को यह नहीं पता था की वह जन्म से क्षत्रिय है, वह सदैव ही स्वयं को क्षूद्र ही समझता रहा लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा ना रहा और जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप किया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके तब किसी काम नहीं आएगा जब उसे उस ज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता होगी । इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर और अर्जुन आमने सामने होते है तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है.
परशुराम और क्षत्रिय
रामायण महाभारत और पुराणों में अनेक बार कहा गया है कि परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय -विहीन कर दिया था. यह कथन भी कुछ असंगति-युक्त और त्रुटिपूर्ण है तथा परशुराम के अव्तारात्व को संकीर्ण और पक्षपात पूर्ण बनाता है. अवतार तो सबके लिए कल्याणकारी होता है,सम्पूर्ण धर्म-परायण मानव जाति का होता है; अतः उसे किसी एक जाति का विनाशक अथवा समर्थक कहना अनुचित है. अवतार किसी एक विशेष जाति का विरोधी नहीं, वरन मानवता को पीड़ित करने वाले समस्त दुष्टों, राक्षसों ,अत्याचारियों का विनाशक और साधू-सज्जनों का उध्दारक होता है. आध्यात्म रामायण और श्रीमद्भागवत पुराण आदि में कहीं-कहीं परशुराम को 'राक्षस स्वरुप राक्षस-स्वरुप क्षत्रियों' ; 'उदंड क्षत्रियों' का विनाशक कहा गया है . सामान्यतया पाठकों का ध्यान ऐसे स्थानों पर क्षत्रिओं के 'विशेषणों' पर कम जाता है . 'क्षत्रिय' शब्द पर ही अधिक रहता है और पाठकों को यह सन्देश पहुंचता है कि परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश तथा ब्राह्मणों का समर्थन किया था. क्षत्रिय जाति तो भारतवर्ष की सम्मानित और गौरवपूर्ण जाति है. हमारा गरिमापूर्ण ईतिहास तो क्षत्रिय जाति के त्याग,बलिदान और शौर्य से निर्मित हुआ है . अतः परशुराम द्वारा क्षत्रियों के विध्वंस की बात कहना भी अवतार 'परशुराम' की गरिमा को कम करना है, जो अनुचित और तथ्यहीन है l
इस विषय में 'विश्वबाहू परशुराम' उपन्यास के विद्वान लेखक का कथन मान्य है " परशुराम भारतीय परम्परा और इतिहास का सबसे विलक्षण ,प्रचंड,वीर चरित्र है; किन्तु पुराणकारों के कारण केवल ब्राह्मण जाति के विष्णु अवतारी बना दिए गए है और वह शासकों (क्षत्रिय ) तथा धार्मिक विप्रों या पोरोहित्य व्यावसायिकों या ब्राह्मणों के वर्चस्व संघर्ष के प्रतीक बना दिए गए . उन्हें दुष्ट शासकों के प्रतिकार में इतना नृशंस , क्रूर और भयंकर रूप में चित्रित किया गया है कि वह कोई हिटलर या मुसोलिनी जैसे नाजी या फासिस्ट हों l"'
कुछ इसी प्रकार की बात 'परशुधर-राम' के लेखक ने निम्न पंक्तियों में कही है :
" उनका लक्ष्य क्षत्रिय-कुल-द्रोह नहीं, मात्र हैहय वंश का प्रतिकार है, वह जातिगत प्रतिहिंसा का प्रतीक नहीं, व्यक्तिगत प्रतिक्रिया का प्रतिफल है l उसमें आत्मरक्षा का भाव प्रबल है, हिंसा का नहीं l उसमें स्वतंत्रता या स्वाधीनता की अनुभूति मुखर है , सत्वापहरण या निरंकुशता की नहीं फिर भी रामार्जुन-युद्ध क्ष्त्रियांश-क्षत्र युध्द है , ब्राह्मण और क्षत्रिय का नहीं l ब्राह्मण वर्ग से इस क्षमा के साथ कि राम सबके है , किसी एक के नहीं l पशुराम को विश्व-प्रेम का प्रतीक समझें, किसी द्रोहरत हिंसा का नहीं l राम राष्ट्रीय एकता के ज्योतिलिंग हैं , किसी वर्गभेद या वर्णभेद के प्रतीक नहीं l उनका प्रयोग सम्पूर्ण मानवता के लिए है , किसी समुदाय विशेष के लिए नहीं I"

इतिहास
जन्म
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे । उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी । राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया । सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की । सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना । फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना । "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया । इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया ।
योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि -- पुत्री ! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है । इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा । इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे । भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली । "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे । बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ । रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु , विश्‍वानस और परशुराम ।
भगवान् परशुराम का जन्म
भगवान् परशुराम के जन्म का सम्बन्ध गंगा तट से जोड़ा जाता है l महाभारत और पुराणों में इस प्रकार के अनेक सूत्र बिखरे हुए है l श्री मदभागवत , नवं स्कंध , सोलहवां अध्याय , प्रथम श्लोक में उल्लेख हुआ है कि " एक दिन की बात है परशुराम की माता रेणुका पानी लेने के लिए गंगातट पर गईं थीं l "
कदाचित रेणुका माता गंगायाम पदमालिनम .
गंधर्वराजम क्रीडनतामुद्कार्थ नदी गता
विलोकयंती क्रीडनतामुद्कार्थ नदी गता ..
इससे यह प्रतीत होता है कि गंगा जमदग्नि आश्रम के निकट ही प्रवाहित होती थी l
जमदग्नि आश्रम और गंगा तट का सम्बन्ध बताने वाला सन्दर्भ ' पदम्' पुराण में आता है. पदमपुराण के अनुसार जमदग्नि ने बहुत काल (१००० वर्षों) तक गंगा तीर पर तपस्या करके इन्द्र से कामधेनु मांग ली l उसी समय इन्द्र ने उन्हें वरदान दिया - तुम्हे ईश्वरांश पुत्र प्राप्त होगा l 'पदम्' पुराण के इस लेख से भी यही प्रमाणित होता है कि परशुराम के पिता का परिवार गंगा के निकट ही कहीं रहता होगा l
भगवान् परशुराम का जन्म गंगा तट पर हुआ था; इसकी चर्चा 'ऋषिवाणी ' पत्रिका संस्करण १९८७,'भगवान् परशुराम ' विशेषांक 'विश्व ब्राह्मण संगठन पंजीकृत',पृष्ठ २७ में भी की गई है l
भगवान् परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम कान्यकुब्ज प्रदेश में था. इस बात का स्पष्ट उल्लेख 'राम यशोगाथा' मराठी ग्रन्थ के लेखक विद्वान श्री बाबुराव पारखे ,पूना ने भी किया है l पारखे जी ने उल्लेख किया है कि 'ऋषि कुमार जमदग्नि के सौंदर्य एवं वीरता पर प्रसन्न होकर महाराज रेनू ने अपनी कन्या रेणुका का विवाह उनसे कर दिया l दामाद के जीवन यापन के लिए बहुत सा दान-दहेज़ दिया और कान्यकुब्ज प्रदेश में निवास की व्यवस्था कर दी l"
भगवान् परशुराम के पूर्वज भार्गओं का शर्याति-हैहय सम्बन्ध तथा गुजरात से उत्तर भारत के ऐतिहासिक स्थान कान्यकुब्ज देश में आगमन संबंधी वृतांत को प्रसिद्ध विद्वान आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अधिक स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार किया है ; ' नहुष पौत्र ययाति-पुत्र यदु के दुसरे पुत्र सहस्त्रजित की शाखा में पच्चीसवीं पीड़ी में हैहय नाम का राजा हुआ ‘ l इसके वंश में तैतीसवां राजा कृतवीर्य और चौतीसवां अर्जुन था , जिसे बल प्रताप के कारण सहस्त्रार्जुन के नाम से पुकारा जाता था l हैहयों का यह वंश विक्रमशाली हुआ l
वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति ने खम्भात की खादी में एक आनर्त राज्य स्थापित किया था l शर्याति की पुत्री सुकन्या का विवाह भृगु -पुत्र एवं शुक्र के सौतेले भाई च्यवन से हुआ था l च्यवन दैत्य याजकों के वंश के थे, प्यान्तु मानवों की कन्या से विवाह करके आर्य ऋषि बन गए थे l
कालांतर में पुण्यजन असुरों ने श्र्यातों से आनर्त का राज्य चीन लिया l आनर्त के स्वामी होकर हैहयों ने च्यवन के वंशज भार्गवों को अपना कुलगुरु माँ लिया l च्यवन के वंशधरों में दधीचि, उर्व , ऋचीक , जमदग्नि और परशुराम उत्पन्न हुए l अतः हैहय वंश का भार्गवों के वंश में न केवल घनिष्ट सम्बन्ध ही था , अपितु वे हैहयों के ही राज्य में बसे रहे l राज-पुरोहित और राजा -संबंधी होने के कारण भार्गव खूब संपन्न जागीरदार की भांति रहते थे l हैहयों ने भी खूब धन दिया था l बाद में उनसे प्रजा की भांति कर वसूलना चाहा l इस पर भार्गवों ने भी आपत्ति की कि राज्य के दामाद और गुरु होने के नाते वे इस 'कर' से अपने को बरी रखना चाहते थे l इस पर झगडा बढ कर भारी विद्रोह का रूप धारण कर गया l अंत में भार्गवों के महिष्मती का राज्य छोड़कर सरस्वती तीर पर बस जाना पड़ा, जहाँ उनका सम्बन्ध कानी कुब्जाधिपति गाढ़ी से हो गया और वे फिर प्रतिष्ठित और संपन्न हो गए l और्व पुत्र ऋचीक का पुत्र जमदग्नि और गाधि पुत्र विश्वामित्र - मामा भांजे सरस्वती तट पर ऋचीक आश्रम में वेद पड़ने लगे तथा शीघ्र दोनों विख्यात वेद-ऋषि हो जाये l"
हैहयों की बर्बरता के कारण भार्गवों का गुजरात से पलायन करके कान्यकुब्ज में आने का महत्वपूर्ण ग्रन्थ भारतीय प्राचीन चरित्र कोष में निम्न प्रकार मिलता है .
" भृगुवंश में पैदा होने के कारण जमदग्नि एवं परशुराम 'भार्गव' पैतृक नाम से विख्यात थे. भार्गव वंश के ब्राह्मण आनर्त (गुजरात) देश के रहने वाले थे. पश्चात में हैहय राजाओं से भार्गवों का झगडा हो गया एवं वे उत्तर भारत के कान्यकुब्ज देश में रहने लगे. "
महाभारत पुराण आदि ग्रंथों का अध्ययन करने से तीन महत्वपूर्ण बिंदु प्रकाश में आये आते हैं , जिनसे यह जानकारी मिलती है कि भगवान् परशुराम के पितामह ऋचीक और पिता जमदग्नि किस स्थान पर रहते थे. ये तीन स्थान निम्नांकित हैं -
१. भगवान् परशुराम के पूर्वज हैहयों के अत्याचारों से बचकर उत्तर भारत हिमालय क्स्जेत्र में आ गए थे .
२. भगवान् परशुराम के पिता जमदग्नि और जमदग्नि के मामा विश्वामित्र का जन्म एक साथ कान्यकुब्ज देश के वन आश्रम मैं हुआ था. दोनों की शिक्षा-दीक्षा भी इसी आश्रम में हुई थी . अनुमान लगाया जा सकता है कि परशुराम का जन्म भी इसी आश्रम में हुआ होगा .
३. भगवान् परशुराम का जन्म गंगा तट पर हुआ था.
'पद्म'पुराण ३.२९८
भागवत पुराण ९ .१६ .१ .२
परशुराम की प्रतीक्षा (-रचयिता राम धारी सिंह दिनकर )
अम्बर में जो अप्रतिम क्रोध छाया है,
पावक जो हिम को फोड़ निकल आया है,
वह किसी भांति भी व्याथा नहीं जाएगा I I
हाँ, वही रूप प्रज्वलित विभासित नर का,
अंशावतार सम्मिलित विष्णु शंकर का ,
हाँ , वही , दुरित से जो न संधि करता है ,
जो संत धर्म के लिए खड्ग धर्ता है I I
हाँ, वही फूटता जो समिष्टि के मन से,
संचित करता है तेज व्यग्रः जन जन से I
हाँ, वही ,-वंचित की जो आशा है ,
निर्धनों, दीं-दलितों की अभिलाषा है I I
विद्युत बनकर जो चमक रहा चिंतन में,
गुंजित जिसका निर्घोष लोक-गर्जन में I
जो पाप पुंज पर पावक बरसाता है,
यह उसी वीर का रथ दौड़ा आता है I I
गाओ कविओं ! जयगान ,कल्पना तानो,
आ रहा देवता जो, उसको पहचानो I
है एक हाथ में परशु, एक में कुश है,
आ रहा नए भारत का भाग्यापुरुष है I I
विक्रमी रूप नूतन अर्जुन-जेता का,
आ रहा स्वयं यह "परशुराम त्रेता" का ,
यह उत्तेजित, साकार, क्रुद्ध भारत है,
यह और नहीं कोई , विशुद्ध भारत है I I
रचना -परशु राम की प्रतीक्षा,पृष्ठ संख्या २०
रचनाकार-महाकवि रामधारी सिंह दिनकर .

परशुराम की ऐतिहासिकता
त्रेता युग में भार्गवों -अंगिराओं आदि ऋषिओं तथा हैहयों वीतहव्यों एवं स्रुज्ययों के मद्य होने वाले संघर्ष पुर्णतः ऐतिहासिक है . हैहयराज सहस्त्रार्जुन और उसके वंशजो ने भार्गव और अंगिराओं तथा र्रिशिओं पर बहुत अत्याचार किये थे. उनसे बलपूर्वक धन (कर) वसूल किया, उनकी धेनुओं को हड़प लिया और उनका विध्वंस कर दिया. बाद में ये अत्याचारी हैहय और उनके सहयोगी राजागण भी विनाश को प्राप्त हो गए . इस कथन का उल्लेख अथर्ववेद , ५वां काण्ड,सूक्त १८.१९ में, श्री मद्भागवत पुराण ,नवं स्कंध सोलहवां अध्याय तथ अन्य अनेक पुराणों में किया गया है. हैहय एवं उनके सहयोगियों का विनाश किसने किया ? इसकी चर्चा अथर्ववेद में नहीं है,श्री मद्भागवत पुराण महाभारत और अन्य पुराणों में विद्यमान है . उनमें सर्वत्र स्पष्ट लिखा है कि परशुराम ने अत्याचारिओं का विनाश किया था. परशुराम ने इन दुष्टों का विनाश महिष्मती ( मध्य प्रदेश ), समन्त पंचक (कुरुक्षेत्र ) और सरस्वती तट के युध्दों में किया था . महिष्मती में तो परशुराम ने अत्याचारी हैहयों का विनाश करके अपने आराध्य शिव की स्थापना की और उनके गले में दुष्टों के मुंडों की माला (मुंड-माला) पह्तायी. जिस स्थान पर यह मुंडमाला पहराई, वही स्थान वर्तमान मध्य प्रदेश का जनपद मांडला अभी भी अस्तित्व में है. इस प्रकार वेद, महाभारत और ऐतिहासिक स्थानों के आधार पर यह अतर्क्य रूप से कहा जा सकता है कि परशुराम इतिहासिक युग-पुरुष हैं l

मातृ-पितृ भक्त परशुराम
श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई । तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी ।
अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा ।
पिता जमदग्निका का मारा जाना और परशुराम का प्रतिशोध
कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था । संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया ।
कुपित परशुरामजी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड से पृथक कर दिया । तब सहस्त्रार्जुन के दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्निका वध कर डाला । रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और हैहयों के रुधिर से स्थलंतपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया । अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया ।
तब उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ कर सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और इंद्र के समक्ष शस्त्र त्यागकर सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर आश्रम बनाकर रहने लगे ।
दंतकथाएँ
ब्रह्मावैवर्त पुराण में कथानक है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेशजी द्वारा रोके जाने पर बलपूर्वक प्रवेश का प्रयास किया । तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों में भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया । चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेशजी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदंत कहलाए ।
रामायण काल
उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुंच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुलद्रोही बताते हुए बहुत भाँति तिन्हआँख दिखाए और क्रोधान्ध हो 'सुनहु राम जेहिशिवधनुतोरा। सहसबाहुसम सो रिपु मोरा॥' तक कह डाला । फिर, वैष्णवी शक्ति का हरण होने पर संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा-याचना कर अनुचित बहुत 'कहेउअज्ञाता । क्षमहुक्षमामंदिरदोउ भ्राता॥' तपस्या के निमित्त वन-गमन कर गए - 'कह जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपतिगये वनहिंतप हेतू॥' वाल्मीकी रामायण में दशरथनंदन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया, और परशुराम ने श्रीरामचंद्रजी की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया ।
उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविंदों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की ।
महाभारत काल
भीष्म द्वारा स्वीकार ना किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुरामजी के पास आई। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा और उनके बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला । किंतु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा ना सके ।
परशुराम अपने जीवनभर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे । किंतु दुर्भाग्यवश वे तब तक सबकुछ दान कर चुके थे । तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा| तब चतुर द्रोणाचर्य ने कहा की मैं आपके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके मंत्रो समेत चाहता हूँ , जब भी उनकी आवश्यक्ता हो। परशुरामजी ने कहा ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये ।
परशुरामजी कर्ण के भी गुरु थे । उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी और ब्र्ह्मास्त्र चलाना भी सीखाया। लेकिन कर्ण एक सुत पुत्र था और फीर भि ये जानते हुए भि के परशुरामजी सिर्फ ब्राह्मणों को अपनी विधा दान करते है कर्ण फरेब करके परशुरामजी से विधा लेने पहोच गया। परशुरामजी ने उसे ब्राह्मण समजकर उसे बहुतसारी विधा सिखाइ , लेकिन एक दिन जब परशुरामजी एक पेड के निचे कर्ण की गोदी मे सर रखके सो रहे थे , तब एक भौरा आकर कर्ण के पैर पर काट ने लगा , अपने गुरुजी कि निद मे कोइ अवरोध ना आये इसलिये वो भौरे को सेहता रहा, भौरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काट रहा था , भौरे के काट ने के कारण कर्ण का खुन बहने लगा , वो खुन बहेता हुवा परशुरामजी के पैरो के पास पहुचा , परशुरामजी की नीन्द खुल गइ और वे इस खुन को तुरन्त परख गए इस घटना के कारण कर्ण जैसे महायोद्धा को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया ।
एक बार गुरु परशुराम कर्ण की एक जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे । तभी एक बिच्छु कहीं से आया और कर्ण की जंघा पर चिपक गया और घाव बनाने लगा । किंतू गुरु का विश्राम भंग ना हो, इसलिये कर्ण बिच्छु डंक को सहते रहे, की अचानक परशुरामजी की निद्रा टुटी, और ये जानकर की एक सूद पुत्र में इतनी सहन शीलता नहीं हो सकती कि वो बिच्छु डंक को सहन कर ले, कर्ण के मिथ्याभाषण पर उसे ये श्राप दे दिया की जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यक्ता होगी , तब वह उसके काम नहीं आयेगी ।
वर्षों बाद महाभारत के युद्ध में एक रात कर्ण ने अपने गुरु का स्मरण किया और उनसे उनके दिये श्राप को केवल एक दिन के लिये वापस लेने का आग्रह किया । किंतु धर्म की विजय के लिये गुरु परशुराम ने कर्ण को ये श्राप स्वीकार करने के लिये कहा , क्युंकि कर्ण अधर्म के प्रतीक दुर्योधन की ओर से युद्ध कर रहा था, और परिणाम स्वरुप अगले दिन के युद्ध में कर्ण को अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त होना पडा़ ।
विष्णु अवतार
भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ । वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे ।
कल्कि पुराण
कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम, भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे । वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्रप्त करने के लिये कहेंगे ।
कल्कि
कल्कि विष्णु का भविष्य में आने वाला अवतार माना जाता है । पुराणकथाओं के अनुसार कलियुग में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों के संहार के लिये कल्किअवतार प्रकट होगा ।
कल्कि अवतार कलयुग के अन्त के लिये होगा। ये विश्नु जी के आवतारो मै से एक है। जब कलयुग मै लोग धरम का अनुसरन करना बन्द कर देगे तब ये आवतार होगा ।
युग पुरुष भगवान् परशुराम का नारी प्रति विचार व आदर भावना
हैहय राज सहस्त्रार्जुन ने जब श्री भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् परशुराम के हाथ से पराजित होकर अपने प्राण त्याग दिए तो उसकी पत्नी महादेवी महामाया रणक्षेत्र में भगवान् परशुराम से कुछ निवेदन करने हेतु आई . परशु राम ने जब महामाया के आने का समाचार सुना तो उनका ह्रदय करुना से भर आया और उन्होंने तुरंत आगे बढ कर साध्वी महामाया की आगवानी की. वैधव्य से अभिशप्त महामाया का यह रूप देख कर परशुराम जी का मन पसीज गया . उन्हें नारी जीवन की इस परवशता और पराश्रयता पर बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने विनम्र वाणी में कहा, ' माता आपने आने का कष्ट क्यों किया ? सूचना भिजवा देती, मैं स्वयं ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता . देवी पुत्र को आज्ञा करें . "
नारी के प्रति दयालु परशुराम कि इस सम्मान -दृष्टि को देखकर देवी महामाया के ह्रदय को बहुत शान्ति मिली. उन्होंने व्यथित ह्रदय से कहा, -"हे तीनो लोकों के स्वामी रेणुका नंदन परशुराम ! मैं आपके दर्शन कर के कृतार्थ हुई. आप मेरी विनती सुनें - मेरे पति , इस देश के सम्राट स्वर्गवासी हो गए हैं . महिष्मती अनाथ हो गई है. आप इस राज्य के विजेता हैं और हम विजित . युध्द -नियमों के अनुसार यहाँ के रमनी समाज, प्रजाजन,धन-संपत्ति ,दुर्ग-सेना,भूमि आदि सब सम्पदा पर आपका पूर्ण अधिकार है. जो भी आदेश आप करेंगे , वह हमें मान्य होगा . अब से आप ही इस राज्य के अधिपति हैं. कोष और राज्य की कुंजियाँ और मुद्राएँ प्राप्त करें l मेरी दूसरी विनती यह है कि मैं अंतिम संस्कार के लिए अपने स्वर्गीय पति का शव लेने आई हूँ l"
यह सुन कर भगवान् परशुराम ने कहा, "देवी महामाया ! आप धन्य हैं. गौ स्वरूपा यह पृथ्वी आप जैसी धर्मपरायण आर्य-ललनाओं के सतीत्व पर ही टिकी है,अन्यथा यह कभी की रसातल में पहुँच गई होती. आप मेरे लिए हर प्रकार से पूजनीय हैं. मैं आप में माता रेणुका की निर्मल छवि के दर्शन करके धन्य हो गया हूँ l "
" देवी महामाया ! जहाँ तक रमणी समाज की बात है, मेरे लिए समस्त जगत का रमनी समाज माता के सामान है. मैं स्त्री में जननी की छवि देखकर बहुत प्रसन्न होता हूँ . मैं नारी जाति को श्रध्देया माता रेणुका के सामान माँ कर उनकी वंदना करता हूँ . मैं नारी को रमण की अपेक्षा अर्चन और श्रध्दा की देवी मानता हूँ. अतः सम्राज्ञी सुने , " स्वर्गीय सम्राट सहस्त्रार्जुन ने जिन-जिन स्त्रीओं को उनकी इच्छा के विरुध्द युध्द में जीतकर अथवा बलपूर्वक अपहरण करके राजमहल में अथवा बंदीगृह में रखा हुआ है, आप उन्हें सम्मान के साथ मुक्त करके वहां भिजवा दें , जहाँ वे स्वेच्छा से जाना चाहें . मैं शास्त्र की इस व्यवस्था को नमन करता हूँ जिसमें कहा गया है कि , -
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवतः . "
"देवी ! नारी के सम्बन्ध में रेरी मान्यता है कि जिस घर,समाज और राष्ट्र में नारी का सम्मान होता है , वह घर, समाज और स्वर्गतुल्य हो जाता है, अतः देवी आप समाज में नारी के सम्मान की व्यवस्था करके राष्ट्र को संपन्न और सुखी बनाएं ."

आरती
ॐ जय परशु राम हरे,
प्रभु जय परशुराम हरे.
दुखी जनों की विपदा,
पल में दूर करे..
ॐ जय परशुराम हरे....

आगे वेद हैं चारो ,
पीछे धनुष धरे .
जाता शीश पर रजत,
पशु हाथ धरे ..
ॐ जय........

ब्रह्मसूत्र काँधे पर,
कटी पे मृगछाला .
गले में माला शोभत,
प्रिपुंड है माला ..
ॐ जय ......

भृगुकुल के नंदन,
अरु जमदग्नि ताता .
माता रेणुका जाये,
ऋषि जन के त्राता ..
ॐ जय .......

कार्तवीर्य अन्यायी ,
सहस्त्र भुजाधारी.
उसको मार गिरायो,
भुजा काट डारी ..
ॐ जय ......

अजर अमर हो प्रभु,
तुम बाल ब्रहमचारी .
भक्तन के हो रक्षक ,
अरु मंगलकारी ..
ॐ जय......

माता-पिटा के सेवक,
जग में विख्याता.
चिरंजीव हो प्रभु तुम,
मन वांछित दाता ..
ॐ जय.....

परशुराम जी की आरती,
जो कोई गावे .
कहत "ब्रह्मानंद" सेवक,
सुख -सम्पत्ती पावे ..
ओं जय.......

Friday, August 14, 2009

मेरी फुल्वारी


















































































मैं नहीं समझता कि इस धरा पर कोई ऐसा मनुष्य होगा जिसे फूल और नन्हें-मुन्हे बच्चे अच्छे नहीं लगते होंगे। आप किसी भी मूड में हों यह दोनों ही राह चलते बरबस ही हमें आकर्षित कर लेते हैं। तनिक ध्यान देकर तो देखिये, अपने अमूल्य और कीमती समय से कुछ क्षण प्रकृति कि इस अनमोल देन के मध्य व्यतीत तो कीजिये। स्तब्ध रह जायेंगे, ठगे से रह जायेगे और सोचने को मजबूर हो जायेंगे कि क्या सोच कर विधाता ने हमारे ऊपर इतना बढ़ा उपकार किया है ? यूँ तो सारे विश्व में लाखों तरह कि वनस्पतियाँ ,पेड पौधे और फल -फूल पाये जाते हैं। मेरी ऐसी सोच है कि वनस्पतियों, पेड़- पौधों और फलों आदि से मनुष्य जाति का सीधा सम्बन्ध है क्यूंकि हम इनका प्रयोग करके लाभ उठाते हैं। परन्तु फूल तो प्रकृति कि ऐसी अनमोल देन है जिसे मात्र निहारने से ही मन, तबियत और आत्मा खुश और तृप्त हो जाती है। व्यक्ति सभी तरह के सुख-दुःख भूलकर प्रकृति की इस सर्वोत्तम कलाकृति को निहारता ही रह जाता है ।
आज हमारे आस-पास अनगिनत फूलों की किस्में देखने को मिलती हैं। विदेशी किस्मों की बात न भी की जाए तो भी हमारे भारतवर्ष में ही हजारों प्रकार के फूलों की किस्में पाई जाती हैं। मुझे फूलों के विषय में कोई विशेष जानकारी की बात तो दूर , हमारे आस-पास पाये जाने वाले सभी फूलों के नामों का भी पता नहीं है । परन्तु फूलों के प्रति दीवानगी और तरह-तरह के फूल उगाने का शौक इस कदर है की जहाँ कहीं से भी अगर कोई नया फूल वाला पौधा मिल जाए तो लगता है जैसे लॉटरी ही निकल आई हो। मुझे पता नही की सभी पुष्प-पालकों के साथ ऐसा ही होता होगा , परन्तु मुझे तो अपने उगाये पौधों से इस कदर लगाव हो जाता है की यदि किसी से गलती से भी उस पौधे को किसी भी प्रकार का कोई नुकसान हो जाए तो मुझ से सहन नहीं होता। अपनी फुलवारी में उगाये गए फूलों वाले पौधे मुझे अपने बच्चों सामान लगते हैं। बीज डालकर सुबहो-शाम अंकुर फूटने से लेकर फूल खिलने की प्रक्रिया की तुलना तनिक अपने नवजात बच्चे से कर के तो देखिये। पैदा होने से लेकर यौवनावस्था तक की अवस्था एक सामान सी लगेगी। मुझे तो दोनों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
स्वाभाव से धार्मिक हूँ और देशभक्ति का भी जज्बा है, शायद इसी लिए मन्दिर और शहीद-स्थली के अतिरिक्त किसी भी स्थान पर फूलों से की जाने वाली सजावट मुझे तनिक भी नहीं भाति है। यह सारी की सारी प्रकृति और कायनात उसी प्रभु की ही तो देन है। एक वही शक्ति तो जन्म-दाता, पालक और संहारक है। वही देने वाला और वही लेने वाला है। इस लिए देव-स्थल पर फूलों की सजावट से ऐसा लगता है की फूलों की ठीक स्थान पर परिणिति हुई है। भला इससे बेहतर सम्मान और क्या होगा कि भगवान् के साथ-साथ, चाहे अनजाने में ही हम उन अर्पित पुष्पों के आगे भी नत-मस्तक हो कर उन्हें भी नमन करते हैं। इसी तरह शहीद-स्थली पर चढाये गए पुष्पों को देख ऐसा लगता है जैसे वीर-शहीदों के साथ-साथ इन पुष्पों ने भी देश के लिए या किसी अच्छे कार्य के लिए अपने प्राणों कि आहुति दी है। इसी लिए हम वहां भी शहीदों के साथ-साथ अर्पित पुच्पों के आगे नत-मस्तक हो जाते हैं। क्या इतना सम्मान किसी और को मिलता है ? तो उत्तर होगा , शायद नहीं। सदियों से पुष्प की इस दी जाने वाली इस बलि को कभी किसी ने जानने की चेष्ठा की है ? पुष्पों कि इस गुपचुप कुर्बानी की भरपाई मनुष्यों द्वारा दिए जाने वाले अनजाने सम्मान से नही हो सकती। इसके लिए हमें यह प्रण करना होगा कि हम किसी भी विलासता या सजावट के लिए पुष्पों की बलि नहीं देंगे। तभी आने वाली पीढी को यह संस्कार मिलेगा कि फूलों को पालने में जितना मजा है उतना उन्हें तोड़ने में नहीं। फूलों से सही मायने में देव-स्थान और शहीद-स्मारक ही सुशोबित होते है, विलासता या सजावट नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो महान कवित्री महा देवी वर्मा एक पुष्प कि व्यथा लिखने में अपना समय व्यर्थ नही गवाती।






Sunday, August 2, 2009

बचपन - न जाने तुम कहाँ चले गए

आज मैंने अपना एक नया ब्लॉग शुरू किया है। युवा-अवस्था व प्रोढा-अवस्था में पहुच कर, किसी न किसी कारण से हमें अपने अपने बचपन की याद किसी न किसी मोड़ पर अवश्य ही आती होगी . या फिर अठखेलियाँ करते नन्हे-नन्हे बच्चों को देख हम उनमें ही अपना बचपन तलाशने लगते हैं. इसी विषय पर आधारित मैंने इस ब्लॉग-पत्रिका का शुभारम्भ किया है व सभी लेखक जनों से उनके लेख इस ब्लॉग पर देखना चाहूँगा. इस ब्लॉग में बच्चों के लिए रोचक व ज्ञानवर्धक लेख व कवितायों भी आमंत्रित की जाती हैं।

सत्य कथा
इधर लक्ष्मण की धोती...........और उधर दर्शकों के ठहाके ।

बहुत पुरानी बात है जब हम कानपुर के स्वरुप नगर (मोतीझील के सामने ) रहा करते थे व मैं बिरला मन्दिर के करीब "टैगोर विद्या मन्दिर " में दूसरी या तीसरी कक्षा में पढता था । विद्यालय के वार्षिक व पारितोषिक वितरण समारोह के उत्सव का दिन था । सीता हरण के नाटक का प्रदर्शन हो रहा था । इस नाटक में रत्ना नाम की पांचवीं कक्षा की एक छात्रा ( जिसका कि बाद में विद्यालय कि एक पिकनिक से वापसी के समय "पनकी " के पास रेलवे के फाटक पर ट्रैक्टर पलटने से मृत्यु हो गई थी ) भगवान श्रीराम का रोल कर रही थी व मैं (विनायक शर्मा) लक्ष्मण का रूप धारण किए हुए राम के साथ -साथ चल रहा था । तो दृश्य था - सीता हरण के बाद राम का विलाप । विलाप करते हुए राम कहते हैं " हे खग मृग, हे मधुकर श्रेणी ,तुम देखि सीता मृग-नैनी" दृश्य बहुत ही करुणा मय था, राम जी का "हे सीते-हे सीते" कह कर विलाप करना व लक्ष्मण का सीता हरण के लिए स्यवम को दोषी मानते हुए "सीता-माता" पुकारते हुए क्रंदन करना । दो नन्हें-नन्हें कलाकारों ने अपनी उत्कृष्ट कला से सभी दर्शकों को न केवल मत्रमुग्ध ही कर रखा था अपितु सभी दर्शकों के नयन भी सजल थे । जंगल -जंगल विचरण करते हुए एक स्थान पर राम और लक्ष्मण अपना एक घुटना धरती पर टिका कर विलाप करते हैं फिर पुनः उठ कर चल देते हैं । इस दृश्य में उठते हुए मेरी यानि लक्ष्मणजी की धोती पावं में फँस कर खुल जाती है । वर्तमान समय की भांति हमारे बचपन में छोटे बच्चे जांगिया आदि नहीं पहना करते थे । ( विशेष: शायद इस घटना या दुर्घटना के पश्चात ही छोटे बच्चों को जांगिया या अंगवस्त्र पहनाने का प्रचलन आरम्भ हुआ हो )

अब आप सभी पाठक गण भली-भांति समझ सकते हैं कि उस समय वहां क्या दृश्य चल रहा होगा ? इसी बीच लक्ष्मण का सीता मैया को भूलकर, धोती पकढ़ कर "परदा गिराओ-परदा गिराओ" कि चिल्लाहट सुन कर भगवान राम भी सीते की पुकार छोड़ , परदा खींचने को दौर पड़े । हम तो उस समय बहुत ही छोटे थे । एक ओर से धोती खुलने से आई विपदा फिर उपर से "शेम -शेम" का भी भय, इसलिए दर्शकों कि प्रतिक्रिया तो अपनी आँखों से न तो हम देख पाए और न ही समझ पाए । बालसुलभ बुद्धी को इतना तो अवश्य ही समझ में आ गया था कि समाज में बहुत ही असमानता व्याप्त है । जब राम जी की सीता गई तो सभी के नयनों में नीर था परन्तु जब लक्षमण जी की धोती गई तो सभी ठहाके लगाने लगे । इस वृतांत को घटित हुए बहुत वर्ष बीत गए परन्तु देर तक आती रही उन ठहाकों की आवाज आज भी कानों में गूंजती सी प्रतीत होती है । हँसते -हँसते तो बहुत से लोगों की आँखों से पानी निकल आता है , परन्तु तनिक सोचिये जब हजार-पन्द्रह सौ दर्शकों की ऑंखें सजल हों और अचानक ही वे ठहाके लगाने लग जायें, तो करुणा से सराबोर ऐसा हास्य दृश्य देख कर आप भी कह उठेंगे "वाह क्या सीन है । "

आज इतने वर्षों बाद भी जब कभी मैं किसी विद्यालय के वार्षिक उत्सव में जाता हूँ , तो नजरें अपने सरीखे उस भोले से निरापद लक्ष्मण को अवश्य ही तलाशती हैं जो कि मेरे बचपन के साथ ही कहीं खो गया है ।

- विनायक शर्मा


कविता
पर .......मेरे बचपन न जाने तुम कहाँ खो  गए  .  

पहले गोद,कन्धा,उंगली फिर घुटनों के बल खिसकते -खिसकते
जाने कब नन्हे पांव   थिरकने के काबिल हो गए ,
लगता  कल की ही बात है , भूली नहीं अभी वोह थिरकन
पर ... मेरे बचपन न जाने तुम कहाँ खो गए .  

लडाई-झगडे, मार-पिटाई  पल में दोस्ती छिन्न  में अनबन

करते थे सब मिल कर रोज नई शैतानी
गिल्ली -डंडा  चोर-सिपाई पल की दोस्ती छिन्न में अनबन
पर ...मेरे बचपन न जाने तुम कहाँ खो गए .

बिस्कुट टॉफी चाकलेट "दो -आने" में बहुत मिलता था
बेर इमली एक पैसे का कैथा, मुझे अच्छा लगता था ,
दीवार फांद  आम अमरुद चुराना , सड़क किनारे तोड़ते थे जामुन
पर न जाने तुम कहाँ खो गए ....मेरे बचपन

बिरला-मन्दिर की नहर , "मोती-झील" सभी बहुत भाते थे
गंगाजी की धाराओं सिसोदिया घाट पर खेलना-कूदना,
नदी-नाले घाट और सड़कें अब भी भर जाते हैं आता है जब सावन
पर न जाने तुम कहाँ खो गए ....मेरे बचपन



अभी और ...